”जमील अहमद खान सामिआ ग्रुप के सीएमडी है,वो अच्छे लेखक भी है,अपनी लेखनी के माध्यम से वो अपने विचारो को सोशल मीडिया पर शेयर करते रहते है। ऐसे ही उनका यह लेख काफी वायरल हो रहा है” पढिये उनका लेख-
– नज़रिया

रोज़ की ज़िंदगी मे कंपनी कितनी अंदर तक घुसी हुई है। एक ज़िन्दगी पूरी करने के लिए जितनी सांस आती जाती है, उससे ज़्यादा तो ये कंपनियां ज़िन्दगी को आगे बढ़ाती हैं। आंख खुलते ही बाबा रामदेव की कंपनी का मंजन। सोने से से पहले भी बाबा रामदेव का च्यवनप्राश । खुद से ना लो तो घर के लोग इतना प्रेशर बना देते हैं,कि लेना ही पड़ता है। दिमाग़ घूम गया इन कंपनी बाज़ी में। सोचा इतना महत्व कहां से आ गया जीवन मे कम्पनीज का। अब ना लकड़हारा रहा और कुम्हार और न ही लोहार रहा और न ही सोनार। सब का काम अब कोई ना कोई कोई कंपनी ही करती है। शायद यही विकास भी है, तो क्या हम 300 साल पहले ही विकसित होने लगे थे।
जनता या प्रजा को पहले अपना जीवन वैसा ही जीना पड़ता था, जैसा राजा साहब या नवाब साहब चाहते थे। बस उन सब का अन्याय देख कर एक कंपनी आ गई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने कहा कि व्यापार कम करेंगे भारत मे बल्कि अन्याय से मुक्ति भी दिलाएंगे भारत वासियों को। एक बात है। ये कंपनी वाले क्षमतावान तो होते हैं, हर तरह से। धन से भी और बुद्धि से भी। बस भारत के तत्कालीन लोगों ने सोचा कि इतनी बड़ी क्षमतावान कंपनी आ गई है। सब गोरे हैं, अब श्वेत न्याय होगा, काले दिन जायँगे ।
तत्कालीन राजाओं और नवाबों को अठन्नी फेंकी तो सब बोले ‘कंपनी ज़िंदाबाद’ और छा गई ईस्ट इंडिया कंपनी। फिर पड़ने लगे सफेद सफेद जूते तो समझ में आया कि अरे हम तो विदेशी गुलाम बन गए। अब तो अन्याय सहन करना होगा कंपनी के लॉ एंड आर्डर के नाम पर । कितनी आसानी से पूरे देश पर कंपनी राज हो गया। देशी राजतंत्र चलाने वालों ने कंपनी की गुलामी बड़े प्यार से संभाल ली। राजाओ की पगड़ी झुक गई कंपनी की हुक्म के सामने। राजा साहब, निज़ाम साहब सभी ने कहां मेरा राजधर्म वो जो कंपनी कहे,उसे मानो ।
जनता तो जनता है, विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। कंपनी हटाओ, विद्रोह हुआ, युद्ध हुआ, ग़दर हुआ और अहिंसक आंदोलन हुआ। लाखों या करोड़ो ने आहुति दी। 200 वर्ष का कठिन संघर्ष रहा उस कंपनी और कंपनी के रखवालों को दूर हटाने में। जाते जाते कंपनी वालों के द्वारा स्थापित राजतंत्र ने देश विभाजित किया तब कहीं गए। हम पढ़ते रहते हैं ईस्ट इंडिया कंपनी का काला अध्याय। कितना बड़ा विकास किया था कंपनी ने, कितना न्याय था। सब तो ठीक था । फिर क्यों आज़ादी का संघर्ष किया ? सब कुछ चाहिए पर आज़ादी सब से पहले चाहिए।
देश आजाद हुआ, जो नफरत का बीज ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय समाज के अंदर बोया था और जो ब्रिटिश भारत मे 1947 आते आते एक उन्माद में चला गया। कट गए कितने लोग, काट दिया अपनो ने अपनो को। फिर बोले सब हम आज़ाद हो गए । राजनीति ने करवट बदली, रोज़गार देने के नाम पर बहुत से राष्ट्रीय कम्पनीज बनी। कई तो अनमोल रतन की तरह। देश को बहुत देती हैं वो कम्पनीज। कंपनीज़ तो सरकार को और बनानी चाहिए। रोज़गार बढ़ाने के लिए । लेकिन अब देखता हूँ कि कम्पनीज बिकने लगी हैं। सरकारी कम्पनीज फ़ॉर सेल ।
देश मे किसान विचलित है कि हम को अब फिर से कंपनी का आदेश मानना पड़ेगा। इसीलिए खेत छोड़ कर सड़क पर बैठ गया है। कहीं जवान भी सोच रहा न हो कि किसान के बाद जवानों को भी कोई कंपनी चलायेगी या देश की सरकार। भ्रम की स्थिति है, परंतु सब की ज़ुबान पर यही है, अब तो जो कपंनी कहेगी वो ही राजनेता करेंगे।
कोई राजनेता जो विपक्ष में है, वो बोलता है कि अब देश के मालिक बस दो कंपनी के लोग होंगे। तो क्या लोकतंत्र फिर से कंपनी राज्य की तरफ जा रही है, क्या फिर कंपनी बहादुर जो बोलेंगे वही राजनेता करेंगे । एक बार फिर से कंपनी बहादुर राज्य। जिसके कंट्रोल में अर्थ व्यवस्था चली जायेगी, चलेगी तो उसी की। अभी तो कुछ थोड़ा ही आगे बढ़े थे देश की आज़ादी और शुद्ध लोकतंत्र की आज़ादी के मज़े चखते हुए। तब तक चारो तरफ से समाचार ही समाचार आने लगे कि अब देश के मालिक बस केवल दो कंपनी वाले होंगे। जो वो कहेंगे वही राजनीतिक तंत्र करेगा और हम । हम फिर से एक अध्याय पढ़ेंगे, कंपनी से कंपनी तक।
(लेखक के निजी विचार है)